ओर मानव संसाधन मंत्रालय के
निर्देशन और प्रोत्साहन पर
जहाँ दिल्ली विश्वविद्यालय
प्रशासन अपने अकादमिक कार्यक्रमों
की संरचना और अंतर्वस्तु में
नुकसानदेह फेरबदल की प्रक्रिया
को और तेजी से अंजाम देने के
लिए एक तो विश्वविद्यालय के
नियमों अधिनियमों
और अध्यादेशों का मजाक बना
रहा है दूसरे
विश्वविद्यालय के अकादमिक
समुदाय द्वारा विश्वविद्यालय
के गंभीर मसलों पर अपनी सामूहिक
राय बनाने और विमर्श करने के
प्रतिष्ठापित अधिकार से उसे
वंचित कर रहा है। वहीं दूसरी
ओर शिक्षकों और छात्रों के
मूलभूत अधिकारों को ताक पर
रख दिया जा रहा है। पिछले हफ़्ते
संत्रस्त शिक्षकों ने देखा
कि किस अश्लील तरीके से
वाइस चांसलर
प्रो० दिनेश सिंह ने कानून
के शासन को तोड़ मरोड़
कर विद्वत्परिषद
में असहमति की आवाजों को खुले
तौर पर धमकियाँ देकर अपने
अधिकारों का बेजा इस्तेमाल
किया और प्राइवेट और विदेशी
उच्च शिक्षा माफिया को लाभ
पहुँचाने के लिए मानव संसाधन
मंत्रालय के पालतू प्रोजेक्ट
मेटा कॉलेज मेटा युनिवर्सिटी
और क्रेडिट आधारित
ट्रांसफर प्रणाली को दिल्ली
विश्वविद्यालय में लाने के
लिए सारी चेतावनियों को धता
बता दिया। विश्वविद्यालय की
हर ज्वलंत समस्या को दरकिनार
करके “अकादमिक सुधार” के छद्म
आवरण में वर्तमान वाइस चांसलर
एक ही एजेंडा को लागू करने पर
लगे हुए हैं जिससे
विश्वविद्यालय विनाश के कगार
पर पहुँच गया है।
दिल्ली
विश्वविद्यालय शिक्षक संघ
डूटा मीडिया
के माध्यम से आम जनता सिविल
सोसायटी और संसद के निर्वाचित
प्रतिनिधियों को अवगत कराना
चाहती है कि विश्वविद्यालय
की अकादमिक बिरादरी अपने आरंभ
से अब तक के इतिहास के सबसे
बुरे दौर में अपने बचाव के लिए
संघर्ष कर रही है जहाँ से
अब तक कोई भी नियमित नियुक्ति
नहीं हुई है जब
कि नये और योग्य अभ्यर्थियों
की लगातार बढ़ती तादाद के बावजूद
लगभग शिक्षण
पद खाली पड़े हैं। वाइस चांसलर
को बारबार इस विषय में पत्र
लिखने पर भी इस मसले पर उनके
द्वारा कोई परिणामी विचार
नहीं किया गया है। सेमेस्टरीकरण
जिस तरह बिना सोचे विचारे
तानाशाही ढँग से लागू किया
गया उससे न केवल पढने पढाने
की प्रक्रिया पर प्रतिकूल
असर हुआ है बल्कि उसका नतीजा
अस्थिर कार्यभार भी है फलस्वरूप
एक सेमेस्टर से दूसरे सेमेस्टर
के अंतराल में शिक्षकों को
रखने निकालने
का नया चलन शुरू हो गया है।
यूजीसी द्वारा विश्वविद्यालय
प्रशासन को कॉलेजों और विभागों
में नियुक्तियाँ शुरू करने
के लिए कई पत्र भेजे जाने के
बावजूद विज्ञापित रिक्तियों
को निरस्त होने दिया गया और
साक्षात्कार कराने के लिए
आवश्यक विशेषज्ञों की सूची
नहीं जारी की गई। जिस निर्मम
तरीके से वाइस चांसलर
ने युवा शिक्षकों का जीवन
अवरुद्ध कर रखा है उससे डूटा
चिन्तित है कि यदि यही रवैया
जारी रहा तो कई प्रतिभाशाली
शिक्षक जो
अभी तदर्थ अस्थायी
या अतिथि अध्यापक
के तौर पर पढ़ा रहे हैं सुरक्षा
और गरिमा के अभाव में दूसरे
क्षेत्रों में रोजगार खोजने
को बाध्य हो जाएँगे।
विश्वविद्यालय
में अस्थायी शिक्षकों की दशा
किसी तरह बेहतर नहीं कही जा
सकती।लंबे समय से लंबित
प्रोन्नतियाँ कहीं कहीं ही
की गई हैं और के
यूजीसी निर्देशों के अनुरूप
तीनों प्रवेश स्तर यथा असिस्टेन्ट
प्रोफेसर एसोशिएट
प्रोफेसर और प्रोफेसर के स्तर
पर नियिक्तियों में आरक्षित
रिक्तियों को अभी तक भरा नहीं
गया है। इस सूरते हाल का सबसे
बुरा असर उन शिक्षकों पर हुआ
है जो अनुसूचित जाति अनुसूचित
जनजाति और अन्य पिछड़े वर्ग
की श्रेणियों के हैं। सरकार
द्वारा चलाई गई आरक्षण की
सकारात्मक नीतियों के रहते
इन नीतियों के क्रियान्वन के
लिए संकल्प का अभाव जो
बार बार स्मरण पत्रों
के बावजूद बना हुआ है शर्मनाक
है और डूटा इस मामले पर
विश्वविद्यालय प्रशासन के
जानबूझ कर पैर खींचने की
भर्त्सना करती है।
2006 के
यूजीसी अधिनियमों और शिक्षकों
के लिए पे रिवीज़न को लागू हुए
कई बरस हो गए हैं। फिर भी पिछले
दो बरसों में डूटा द्वारा
यूजीसी को सौंपी गई विशद
रिपोर्टों में जिन स्पष्ट
अनियमितताओं की निशानदेही
की गई थी, उन
अनियमितताओं का निराकरण अभी
तक नहीं किया गया है। यूजीसी
ने प्रो० आनन्द कृष्णन की
अध्यक्षता में इस साल की शुरुआत
में एक एनोमिलीज़ रेक्टिफ़िकेशन
कमिटी गठित की थी और
डूटा को आश्वासन दिया था कि
जून तक
उक्त कमेटी की अंतरिम रिपोर्ट
आ जाएगी। रिपोर्ट अभी तक नहीं
आई है और जिन शिक्षकों को अपना
प्राप्य नहीं मिला है वे हताश
होने लगे हैं। इस अधिनियम की
अस्पष्टताओं ने कई शिक्षकों
के कैरियर एडवांसमेंट पर असर
डाला है जो
इस कारण अपने कैरियर में जड़ीभूत
रह जाने पर विवश हैं। आज शिक्षकों
के मनोबल का ह्रास एक अभूतपूर्व
संकट का रूप ले चुका है जिससे
विश्वविद्यालय का अकादमिक
स्वास्थ्य अस्थिर होने का
खतरा सामने आ गया है।
मशहूर
है कि जब रोम जल रहा था तो नीरो
बाँसुरी बजा रहा था। यही बात
सरकार की अहम संस्थाओं और उनके
द्वारा नियुक्त किए गए लोगों
के रवैये और उस विश्वविद्यालय
के प्रति उनकी संवेदनहीनता
के बारे में भी कही जा सकती
है जो आज भी देश में उच्च शिक्षा
के क्षेत्र में मानव संसाधन
के सबसे बड़े समुच्चय को आकर्षित
कर रहा है। इसकी स्वायत्तता
को इसके घमंडी और प्रतिशोधी
वाइस चांसलर
द्वारा जबरदस्ती नष्ट किया
जा रहा है और
अब इसके शिक्षकों को बौद्धिक
आज्ञाकारिता और पेशेवर अधीनता
के नए वातावरण में दीक्षित
किए जाने के लिए उनके हाथ उमेठे
जा रहे हैं। डूटा दिल्ली
विश्वविद्यालय और अन्यत्र
भी शिक्षक
समुदाय के हितों की रक्षा के
लिए संघर्ष करती रहेगी और
इसीलिए यह सार्वजनिक अपील
जारी कर रही है ताकि ज्ञान के
उच्च स्तर के लिए विश्वविद्यालय
के योगदान को समझा जा सके और
शिक्षकों के सामूहिक गरिमा
को पुनर्स्थापित किया जा सके
तथा ज्ञान और हमारे युवाओं
के भविष्य के प्रति हमारे समाज
की जिम्मेदारी संतुलित रह
सके।
डूटा
संबद्ध अधिकारियों खास
तौर पर विश्वविद्यालय के
अधिकारियों को यह स्पष्ट कर
देना चाहती है कि यदि यही
स्थितियाँ बनी रहीं और अधिकारीगण
शिक्षकों की शिकायतों के
प्रभावी समाधान के लिएआवश्यक
स्वतंत्र और सौहार्द्रपूर्ण
संवाद से कतराते रहे तो डूटा
को सीधी कार्रवाई जिसमें
अनश्चितकालीन हड़ताल भी शामिल
है का
सहारा लेने के लिए बाध्य होना
पड़ेगा और सीधे तौर पर इसके
जिम्मेदार अधिकारीगण होंगे।
S.D. Siddiqui, Secretary Amar Deo Sharma, President
Leave a Reply